किसे कहते हैं संकल्प…
कामनाओं के अनंत सागर में से किसी एक कामना का चुनाव करके उसे मूर्त रूप देने का नाम संकल्प है। इसीलिए संकल्पपूर्वक किए गए कर्म का फल अवश्य मिलता है। मनु स्मृति में कहा गया है-
संकल्पमूल: कामौ वै यज्ञा: संकल्प सम्भवा:।
व्रता नियम कमश्चि सर्वे संकल्पजा: स्मृता।।
मनुष्य की समस्त कामनाओं का प्रकटीकरण संकल्प के माध्यम से होता है। सभी यज्ञ संकल्प के पश्चात ही संपन्न होते है। कोई भी नित्य, नैमित्तिक, काम्य, पारलौकिक, पारमार्थिक, आध्यात्मिक, निष्काम एवं प्रासंगिक अनुष्ठानों के पूर्व संकल्प कना अति आवश्यक है।
स्थूल रूप से संकल्प में देश, काल, स्वगोत्र, कामना, संकल्पधिष्ठित देवता, कतृत्व, कर्म का विशेष रूपरूप,कर्म की कालावधि, कर्मानुषंग सेअन्य गौण कर्मो का उच्चार, गणेश वंदन तथा पुण्याह वाचन-इन ग्यारह बातों का समावेश होता है।
संकल्प के दौरान हाथ मे अक्षत् (चावल) लेकर अंत में करिष्ये बोलते समय तीन बार जल छोडने का विधान है। अक्षत से कर्म की अविच्छिन्नता निर्दिष्ट होती है। पानी छोडते समय वहां जलाधिपति देवता के उपस्थित होने से वह कर्म साक्षीभूत होता है।
यदि ऎसे समय आलस,अनिच्छा एवं टालमटोल आदि के कारण बीच में ही कर्मत्याग हो तो वरूण फल का हरण कर लेता है। इस संदर्भ में वैतिरीय ब्राह्मण का यह वचन विशेष् उल्लेखनीय है कि
अनृते खसुवैक्रियमाणे वरूणों गृहयाति अप्सुवे वरण:-
यदि संकल्प सत्य न हो तो उस कर्म का फल वरूण हरण करता है अर्थात वह कर्म व्यर्थ हो जाता है।
संकल्प के निमित्त जो पानी छोडा जाता है,उसे उदक कहते हैं। उदक के बिना किया हुआ संकल्प सर्वथैव व्यर्थ होता है, ऎसा शास्त्र संकेत है।
कुछ अवसरों पर संकल्प आवश्यक होता है परंतु यदि जल मिलना असंभव हो तो नारियल या सुपारी पर हाथ रखकर अथवा तुलसी बिल्वपत्र हाथ में लेकर संकल्प किया जा सकता है।
यदि वह भी संभव न हो तो केवल मानसिक संकल्प करके बाद में यथावकाश विधिवत संकल्प करें। यदि विधिवत संकल्प नहीं कर सकते तो कर्म का स्वरूप, देवता एवं कालावधि आदि का उच्चारण अपनी मातृभाषा में करके पानी छोडना भी पर्याप्त होता है।
संकल्प का मंत्र निम्नवत है :-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु:, ॐ अद्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्री श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे पुण्य (अपने नगर/गांव का नाम लें) क्षेत्रे बौद्धावतारे वीर विक्रमादित्यनृपते : नाम संवत्सरे…….. ऋतो……… महामंगल्यप्रदे मासानां मासोत्तमे ……. मासे ……..पक्षे ………… तिथौ ……. वासरे (गोत्र का नाम लें) गोत्रोत्पन्नोऽहं अमुकनामा (अपना नाम लें) सकलपापक्षयपूर्वकं सर्वारिष्ट शांतिनिमित्तं सर्वमंगलकामनया- श्रुतिस्मृत्योक्तफलप्राप्त्यर्थं मनेप्सित कार्य सिद्धयर्थं श्री………. (देव का नाम) पूजनं च अहं करिष्ये। तत्पूर्वागंत्वेन निर्विघ्नतापूर्वक कार्य सिद्धयर्थं यथामिलितोपचारे गणपति पूजनं करिष्ये।
अंत में करिष्ये बोलते समय तीन बार जल छोडने का विधान है।
हरि ॐ…..
हरि: ओऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽम्ममममम्म्म्म
हरि: ओऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽम्ममममम्म्म्म
हरि: ओऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽम्ममममम्म्म्म
हरि: ओऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽम्ममममम्म्म्म
हरि: ओऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽम्ममममम्म्म्म
….ओमकार मंत्र मे आयु आरोग्य को पुष्ट करने की शक्ति है, बडे बडे विघ्न बाधा रोकने का सामर्थ्य है….
-तुम जो चाहते वो होता नही,
-जो होता है , वो तुमको भाता नही…
-और जो भाता है , वो होता नही..
…ये प्रकृति का अकाट्य नियम है..!
आप प्रकृति से सुख प्राप्त करने का प्रयत्न करते तो कुछ न कुछ रोक लगता है… “मनुष्य अपनी योग्यता को स्व-केन्द्रित रखेगा तो सीमित दायरे मे रहेगा..अपनी योग्यता दूसरे के लिए उपयोग करेगा तो उस विराट के साथ एकाकार हो जाएगा” …इस नियम के विरोध मे आप जाते तो रोक लगती है और इस नियम के अनुसार चलते तो ईश्वर का सहयोग मिलता है..टीचर की योग्यता विद्यार्थी का ज्ञान बढ़ाने के लिए होती है..डाक्टर की योग्यता मरीजो को ठीक करने के लिए होती है..संतो की योग्यता समाज मे खुशहाली और आनंद का वातावरण करने के लिए होती है…ऐसे तुम्हारे मे जो भी योग्यता हो , अपनी योग्यता औरो के लिए उपयोग करो.. बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय
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